30 November, 2015

Anugrah Mishra

""गुम न हो जाय साझी विरासत कहीं,
अपने बच्चों को किस्से सुनाया करो |
भीग जाने का अपना अलग लुत्फ़ है,
बारिशों में निकलकर नहाया करो |
तुम जो रूठो तो कोई मनाये तुम्हें,
कोई रूठे तो तुम भी मनाया करो |""

#AnugrahMishra

23 October, 2015

AnugrahMishra

Anugrah Mishra

A #desi and #memorable #lunch at #ढाबा
with a sweet plate of #खीर made the day... 
Thanks #dhakad & #hemant bhai...
#AnugrahMishra

Anugrah Mishra







 नजर में शौकिया लब पर मोहब्बत का फ़साना है,
मेरी उम्मीद की जद में अभी सारा ज़माना है ,
कई जीते है दिल के देश पर मालूम है मुझको ;
सिकंदर हु मुझे एक रोज खाली हाथ जाना है!!!
#AnugrahMishra

15 April, 2015

ANUGRAH MISHRA–SHAYARI HINDI

जिस दिन मेरी मौत की खबर मिलेगी तब लोग यही कहेंगे
बन्दा कभी मिला तो नही था लेकिन पोस्ट अच्छी डालता था
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10 April, 2015

HINDI KAVITA–ANUGRAH MISHRA

 

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विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;
मुझे लुटा भर देना है, अपना अनिवार्य, असंयत गान।
ओ अबाध के सखा! नहीं मैं अपनाने का इच्छुक हूँ;
अभिलाषा कुछ नहीं मुझे, मैं देने वाला भिक्षुक हूँ!
परिचय, परिणय के बन्धन से भी घेरूँ मैं तुम को क्यों?
सृष्टि-मात्र के वाञ्छनीय सुख! मेरे भर हो जाओ क्यों?
प्रेमी-प्रिय का तो सम्बन्ध स्वयं है अपना विच्छेदी-
भरी हुई अंजलि मैं हूँ, तुम विश्व-देवता की वेदी!
अनिर्णीत! अज्ञात! तुम्हें मैं टेर रहा हूँ बारम्बार-
मेरे बद्ध हृदय में भरा हुआ है युगों-युगों का भार।
सीमा में मत बँधो, न तुम खोलो अनन्त का माया-द्वार-
मैं जिज्ञासु इसी का हूँ कि अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?
विश्व नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
~

अज्ञेय

05 April, 2015

मन्जिल :- एक तलाश

 

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

दोस्तो वक्त के साथ चलते-चलते, कभी खुद को तो कभी दुसरो को बदलते- बदलते, हम लोग इतना आगे निकल आये है की अब उस वक्त के साथ लय मिलाकर चलना भी कठिन हो गया है। इस दौडती भागती जिन्दगी ने शायद इतना जानने का मौका ही नही दिया, या यू कहे की हमने ये जानने का मौका चाहा भी नही की इस वक्त और जिन्दगी के तालमेल को बनाये रखने के लिये हम किस ओर भागे जा रहे है। खैर कहा जाता है की चलने और फिर कभी न रुकने का नाम ही तो जिन्दगी है, पर ध्यान बस इतना रहे की की ये जो दिन रात भागते रहने वाली जिन्दगी है, वो कही नकारात्मकता की ओर ना मुड जाये। ऐसा ना हो की मन्जिल मिल तो जाये पर ऐसी की जहा दो पल रुक भी ना सके और फिर मजबूर होकर एक नयी मन्जिल तलाशने मे लग जाये, जो आज की खासकर, हमारी युवा पीढी के समक्ष प्रमुख चुनौती है।

दोस्तो इन मन्जिलो कि तलाश तो यू उम्र भर चलती ही रहेगी, बस अपने आप मे इतनी सकारात्मकता बनाये रखियेगा कि ये सन्सार भर की उलझने और दुविधाये आपके रास्ते को ना बदल पाये। आप उसी मन्जिल तक पहुचे जहा आपको पहुचना है।

बेशक जो रास्ता हमने चुना है, वो थोडा औरो से कठिन लग भी सकता है और हो भी सकता है पर यकीन मानिये सन्सार का हर एक व्यक्ति शायद यही सोचता है, इसलिये आपके लिये बस इतना सा सन्देश है की खुद मे इतनी शक्ति हो की अपने आप को उस स्तर तक ले जा सके, जहा तक पहुच के आपको खुद पर गर्व महसूस हो सके।

अन्ततः बस इतना सा सन्देश देना चाहता हू की-

“है अगर विश्वास तो मन्जिल मिलेगी,

शर्त इतना है की बिना रुके चलना होगा,

जिस जगह हो अमावस की हूकूमत,

वहा दिया सा जलना होगा॥“

- अनुग्रह मिश्रा

13 October, 2014

HINDI POEM - ANUGRAH MISHRA


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा!
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है?

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं!
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

ANUGRAH MISHRA

बेहतर से बेहतर की तलाश करो;
मिल जाये नदी तो समंदर
की तलाश करो;
टूट जाते हैं शीशे
पत्थरों की चोट से;
टूट जाये पत्थर ऐसे शीशे
की तलाश करो।
#‎AnugrahMishra‬

PD. ATAL BIHARI'S POETRY- ANUGRAH MISHRA



विजय का पर्व!
जीवन संग्राम की काली घड़ियों में
क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण
अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के
पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर
विजयोन्मुख भविष्य का
पथ प्रशस्त करते हैं।

अमावस के अभेद्य अंधकार का—
अन्तकरण
पूर्णिमा का स्मरण कर
थर्रा उठता है।

सरिता की मँझधार में
अपराजित पौरुष की संपूर्ण
उमंगों के साथ
जीवन की उत्ताल तरंगों से
हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले
नैराश्य के भीषण भँवर को
कौतुक के साथ आलिंगन
आनन्द देता है।

पर्वतप्राय लहरियाँ
उसे
भयभीत नहीं कर सकतीं
उसे चिन्ता क्या है ?

कुछ क्षण पूर्व ही तो
वह स्वेच्छा से
कूल-कछार छोड़कर आया
उसे भय क्या है ?
कुछ क्षण पश्चात् ही तो
वह संघर्ष की सरिता
पार कर
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
अंकित करेगा।

हम अपना मस्तक
आत्मगौरव के साथ
तनिक ऊँचा उठाकर देखें
विश्व के गगन मंडल पर
हमारी कलित कीर्ति के
असंख्य दीपक जल रहे हैं।

युगों के बज्र कठोर हृदय पर
हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं।
अनंत भूतकाल
हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं।

भावी की अगणित घड़ियाँ
हमारी विजयमाला की
लड़ियाँ बनने की
प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं।

हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास
अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है।
हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी

विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।

ANUGRAH MISHRA


स्याही सूखी, भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या,
अभी शेष समंदर मन में, 
आंसू भी सूखे तो क्या।
पत्ता-पत्ता डाली-डाली, 
बरगद भी सूखा तो क्या,
जड़े शेष जमीं में बाकी, 
गुलशन भी सूखा तो क्या,
स्याही सूखी, कलम भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या,
अपने रूठे, सपने झूठे, 
जग भी छूट गया तो क्या,
जन्मों का ये संग है अपना, 
छूट गया इक जिस्म तो क्या
स्याही सूखी, कलम भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या।

20 February, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

दुश्मनी का सफर, एक कदम - दो कदम,
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएँगे।

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA


अखबारों की सुर्ख़ियों में आने लगा जो नाम मेरा
वो बिना पढ़े ही कईं कईं पन्ने पलटाने लगे हैं.






10 February, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

"मुसीबतों में उभरती है
शख्सियत यारो,
जो पत्थरों से ना उलझे
वो आइना क्या है"..

13 January, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA







मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे


ANUGRAH MISHRA-

ANUGRAH MISHRA

05 January, 2014

AKSHAT- THE BEST CREATION OF GOD..

AKSHAT(MY BHANJA)--ANUGRAH MISHRA
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे


ANUGRAH MISHRA - NEW YEAR 2014

ANUGRAH MISHRA

"जायचा देख के बोला ये नज़ूमी मुझ से ,
जो भी माँगा है वो हर हाल में मिल जायेगा ,
क्या मुबारक है नया साल जो मैं खुश होऊं ?
वो जो बिछुड़ा है क्या इस साल में मिल जायेगा?"


courtesy.. kumar vishwas 

01 January, 2014

HAPPY NEW YEAR

ANUGRAH MISHRA
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा 

देकर नवल प्रभात विश्व को, हरो त्रस्त जगत का अंधियारा 

हर मन को दो तुम नई आशा, बोलें लोग प्रेम की भाषा 
समझें जीवन की सच्चाई, पाटें सब कटुता की खाई 

जन-जन में सद्भाव जगे, औ घर-घर में फैले उजियारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

मिटे युद्ध की रीति पुरानी, उभरे नीति न्याय की वाणी 
भय आतंक द्वेष की छाया का होवे संपूर्ण सफाया 

बहे हवा समृद्धि दायिनी, जग में सबसे भाईचारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

करे न कोई कहीं मनमानी दुख आंखों में भरे न पानी 
हर बस्ती सुख शांति भरी हो, मुरझाई आशा लता हरी हो 

भूल सके जग सब पी़ड़ाएं दुख दर्दों क्लेशों का मारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

वातावरण नया बन जाए, हर दिन नई सौगातें लाए 
सब उदास चेहरे मुस्काएं, नए विचार नए फूल खिलाएं 

ममता की शीतल छाया में जिए सुखद जीवन जग सारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा

........


29 December, 2013

अभी सुरज नही डूबा

अभी सुरज नही डूबा ज़रा सी शाम होने दो,
मैं खुद ही लौट जाउँगा ज़रा नाकाम हाने दो.
मुझे बदनाम करने के तरीके खोजते क्यू हो,
मैं खुद हो जाउँगा बदनाम जरा सा नाम होने दो
ANUGRAH MISHRA

03 October, 2013

ANUGRH MISHRA


रख हौंसला वो मंज़र भी आयेगा;
प्यासे के पास चलकर समंदर भी आयेगा;
थक कर ना बैठ अए मंजिल के मुसाफ़िर;
मंजिल भी मिलेगी और जीने
का मजा भी आयेगा।

01 October, 2013

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA
 




"सब अपने दिल के राजा हैं सबकी कोई रानी है

कभी प्रकाशित हो न हो पर सबकी एक कहानी है

बहुत सरल है पता लगाना किसने कितना दर्द सहा

जिसकी जितनी आँख हँसे है उतनी पीर पुरानी 

है...!!!"



24 September, 2013

लिखू तो क्या लिखू.. हर पन्ने पे तेरी तस्वीर नज़र आती है..

तुम्ही पे मरता है ये दिल ,अदावत क्यों नहीं करता ,
कई जन्मे से बंधी है , बगावत क्यों नहीं करता
कभी तुम से थी जो वही शिकायत है ज़माने से,
मेरी तारीफ करता है मुहब्बत क्यों नहीं करता ?

"तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ"
कोई कब तक महज़ सोचे कोई कब तक महज़ गाये ?
इलाही क्या ये मुमकिन है कि कुछ ऐसा भी हो जाये ?
मेरा महताब उसकी रात के आग़ोश में पिघले
मैं उसकी नींद में जागूं वो मुझमे घुल के सो जाये ..."

जिन की आखों में सपने हैं,होठों पर अंगारें हैं ,
जिन के जीवन-मृग पूँजी की क्रीडाओं ने मारे हैं,
जिन के दिन और रात रखें हैं गिरवीं साहूकारों पर,
जिन का लाल रक्त फैला है संसद की दीवारों पर,
मैं उन की चुप्पी को अब हुँकार बनाने वाला हूँ .
मैं उन की हर सिसकी को ललकार बनाने वाला हूँ ...

"नेकियों का सिला बदी में मिले और शोहरत की कमाई क्या है
इस बुलंदी पे के जाना है ,अच्छा होने में बुराई क्या है... "

"कलम को ख़ून में खुद के डुबोता हूँ तो हँगामा,
गिरेबाँ अपना आँसू में भिगोता हूँ तो हँगामा,
नहीं मुझ पर भी जो खुद की खबर वो हैं ज़माने पर,
मैं हँसता हूँ तो हँगामा,मैं रोता हूँ तो हँगामा ...."

ज़िन्दगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगाफ़राज़
उसका ये कहना कि तू शायर है, दीवाना नहीं.

"तुम ने कुछ पढ़ दिया दुआ में क्या ..?
फिर से तबियत में कुछ आराम सा है ...."

थकन ,टूटन ,उदासी ,ऊब ,तन्हाई,अधूरापन ,
तुम्हारे याद के संग इतना लम्बा कारवाँ क्यूँ है ...." Fever ....

"कुछ करने में कुछ मज़ा तो है ,
ये मज़ा हम को क्यूँ नहीं आता ...."

"घर से निकला हूँ तो निकला है घर भी साथ मेरे
देखना ये है कि मंज़िल पे कौन पहुँचेगा ,
मेरी कश्ती में भँवर बांध के दुनिया ख़ुश है
दुनिया देखेगी कि साहिल पे कौन पहुँचेगा .....

"माँ,बहन,बेटी या महबूब के साये से जुदा,
एक लम्हा हो, उम्मीद करता रहता हूँ
एक औरत है मेरी रूह में सदियों से दफ़न ,
हर सदा जिस कि,मैं बस "गीत" करता रहता हूँ ...

"हमें बेहोश कर साकी ,पिला भी कुछ नहीं हम को
करम भी कुछ नहीं हम को ,सिला भी कुछ नहीं हम को
मुहब्बत ने दिया है सब, मुहब्बत ने लिया है सब
मिला भी कुछ नहीं हम को ,गिला भी कुछ नहीं हम को ......"

इंशा जी उठो अब कूच करो,इस शहर में जी को लगाना क्या!
वहशी का सुकूं से क्या मतलब,जोगी का नगर में ठिकाना क्या!!
इस दिल के दरिदा दामन में,देखो तो सही सोचो तो सही,
जिस झोली में सौ छेद हुए,उस झोली का फ़ैलाना क्या!
शब बीती चाँद भी डूब चला, जंजीर पड़ी दरवाजे पे,
क्यूँ देर गए घर आए हो, सजनी से करोगे बहाना क्या?

"वो एक दिन जो मुकरर्र था मुहब्बत के लिए ,
वो एक दिन तो तुझे सोचने में बीत गया ...."

अब उसे कैसे बताऊँ कि अकेला हूँ मैं ,
भीड़ में मुझ को घिरा देख के जो लौट गया .....

भटक के गए हम उस जगह शबे-हिज्राँ ,
जहाँ जमीं मिले और फलक नहीं पहुंचे
तेरी गिरफ़्त से छुटना ना रास आया हमें ,
ऐसे आज़ाद हुए खुद तलक नहीं पहुंचे ..."

रोज़ जाते हो तुम नींद की मुंडेरों पर,
बादलों मे छुपे एक ख़्वाब का मुखड़ा बन कर

"पूजा का दीपक बिन बाले खुद जल जाता है ...
माँ का आना घर भर को मालूम चल जाता है ...

खुद को फैलाओ कभी आसमाँ की बाँहों सा,
तुम मे घुल जाए कोई चाँद का टुकड़ा बन कर .

"एक-दो रोज़ में हर आखँ ऊब जाती है ,
दिल को मज़िल नहीं रस्ता समझनें लगतें हैं .....
जिन को हासिल नहीं वो जान देते रहतें हैं ,
जिन को मिल जाऊं वो सस्ता समझनें लगतें हैं .

"तेरे वजूद की रग-रग में यूँ पैबस्त हैं हम
हमारे दावे की अज़ियत को आजमाया कर
हमें कुबूल नहीं है तेरा उदास बदन
तू अपने आप से मिल कर भी मुस्कुराया कर......"

"तेरी उम्मीद, मिटते-मिटते भी,
एक उम्मीद छोड़ जाती है ....."

"मेरे पीछे जो छूट जाते हैं, वो भी मौसम सुहाने होते हैं ..."

"बात ऊँची थी मगर बात ज़रा कम आकीं,
उस ने जज़्बात कि औकात ज़रा कम आकीं ,
वो फ़रिश्ता मुझे कह कर ज़लील करता रहा ,
मैं हूँ इंसान मेरी जात ज़रा कम आकीं ..."

प्रीतो तक नहीं पहुंची बात ..तालियों का शोर सुनते कटी सारी रात "

उँगलियाँ आज भी इस सोच में उलझीं हैं फ़राज़ ,उस ने किस तरह नए हाथ को थामा होगा

"हम मदरसे से अगर गुज़रे तो बच्चों ने कहा ,ये वहीँ हैं जो बिना इल्म के दीवाने हुए .

"दूर वादी में दूधिया बादल झुक के पर्वत को प्यार करते हैं, दर्द कि गोद में जहाँ ले कर हम तेरा इंतजार करते हैं .

वो नज़ारे जो कभी शौक तमन्ना थे मुझे,
कर दिए एक नज़र मे ही पराये उस ने ,
रंगे- दुनिया भी बस अब स्याह और सफ़ेद लगे,
मेरी दुनिया से यूँ कुछ रँग चुराए उस ने ......"

किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है.....

कोई कब तक फ़क़त सोचे, कोई कब तक फ़क़त गाए,
इलाही क्या ये मुमकिन है कि कुछ ऐसा भी हो जाए ?
मेरा महताब उस कि रात के आगोश में पिघले ,
मैं उस कि नींद में जागूँ वो मुझ में घुल के सो जाए ..."

"मेरी आखों में रोशन है जो वीरानी, तुम्हारी है
बिछुड़ कर तुम से ज़िन्दा हूँ ये हैरानी, तुम्हारी है
मेरी हर साँस में लय है तुम्हारे दर्द की मुश्किल ,
मग़र इस दर्द की हर एक आसानी, तुम्हारी है ....."

समझा किसी ने, जाना किसी ने ,
हम ने बताया, माना किसी ने ,
मुहब्बत के ये कायदे भी अजब हैं ,
खोना किसी ने, पाना किसी ने.....

खुद से मुह मोड़ तो नहीं सकते ,
हम तुम्हें छोड़ तो नहीं सकते
दिल जो तोडा है तुमने शिद्दत से ,
अब इसे जोड़ तो नहीं सकते ....

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने कि आदत नहीं रही ...

जो भी ज्यादा या कम समझतें हैं ,तुम को बस एक हम समझतें हैं
हम ठहाकों का दर्द जीतें हैं ,लोग आँसूं को गम समझतें हैं
इसलिए बिस्तरा नहीं करते ,खवाब आखों को नम समझतें हैं
जो समझा तमाम उम्र हमें ,हम उसे दम दम समझतें हैं.....".

तुझ को गुरुर हुस्न है मुझ को सुरूर फ़न,
दोनों को खुदपसंदगी की लत बुरी भी है ,
तुझ में छुपा के खुद को मैं रख दूँ
मग़र मुझे, कुछ रख के भूल जाने की आदत बुरी भी है .

जिस्म का आखरी मेहमान बना बैठा हूँ,
एक उम्मीद का उन्वान बना बैठा हूँ,
वो कहाँ है ये हवाओं को भी मालूम है,
मगर, एक मैं ही हूँ जो अनजान बना बैठा हूँ ....

तेरे प्यार और साथ की एक............ ज़ंजीर नज़र आती है


लिखू तो क्या लिखू.. हर पन्ने पे तेरी तस्वीर नज़र आती है