विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;
मुझे लुटा भर देना है, अपना अनिवार्य, असंयत गान।
ओ अबाध के सखा! नहीं मैं अपनाने का इच्छुक हूँ;
अभिलाषा कुछ नहीं मुझे, मैं देने वाला भिक्षुक हूँ!
परिचय, परिणय के बन्धन से भी घेरूँ मैं तुम को क्यों?
सृष्टि-मात्र के वाञ्छनीय सुख! मेरे भर हो जाओ क्यों?
प्रेमी-प्रिय का तो सम्बन्ध स्वयं है अपना विच्छेदी-
भरी हुई अंजलि मैं हूँ, तुम विश्व-देवता की वेदी!
अनिर्णीत! अज्ञात! तुम्हें मैं टेर रहा हूँ बारम्बार-
मेरे बद्ध हृदय में भरा हुआ है युगों-युगों का भार।
सीमा में मत बँधो, न तुम खोलो अनन्त का माया-द्वार-
मैं जिज्ञासु इसी का हूँ कि अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?
विश्व नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
~
अज्ञेय
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