13 October, 2014

HINDI POEM - ANUGRAH MISHRA


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा!
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है?

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं!
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

ANUGRAH MISHRA

बेहतर से बेहतर की तलाश करो;
मिल जाये नदी तो समंदर
की तलाश करो;
टूट जाते हैं शीशे
पत्थरों की चोट से;
टूट जाये पत्थर ऐसे शीशे
की तलाश करो।
#‎AnugrahMishra‬

PD. ATAL BIHARI'S POETRY- ANUGRAH MISHRA



विजय का पर्व!
जीवन संग्राम की काली घड़ियों में
क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण
अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के
पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर
विजयोन्मुख भविष्य का
पथ प्रशस्त करते हैं।

अमावस के अभेद्य अंधकार का—
अन्तकरण
पूर्णिमा का स्मरण कर
थर्रा उठता है।

सरिता की मँझधार में
अपराजित पौरुष की संपूर्ण
उमंगों के साथ
जीवन की उत्ताल तरंगों से
हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले
नैराश्य के भीषण भँवर को
कौतुक के साथ आलिंगन
आनन्द देता है।

पर्वतप्राय लहरियाँ
उसे
भयभीत नहीं कर सकतीं
उसे चिन्ता क्या है ?

कुछ क्षण पूर्व ही तो
वह स्वेच्छा से
कूल-कछार छोड़कर आया
उसे भय क्या है ?
कुछ क्षण पश्चात् ही तो
वह संघर्ष की सरिता
पार कर
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
अंकित करेगा।

हम अपना मस्तक
आत्मगौरव के साथ
तनिक ऊँचा उठाकर देखें
विश्व के गगन मंडल पर
हमारी कलित कीर्ति के
असंख्य दीपक जल रहे हैं।

युगों के बज्र कठोर हृदय पर
हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं।
अनंत भूतकाल
हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं।

भावी की अगणित घड़ियाँ
हमारी विजयमाला की
लड़ियाँ बनने की
प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं।

हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास
अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है।
हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी

विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।

ANUGRAH MISHRA


स्याही सूखी, भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या,
अभी शेष समंदर मन में, 
आंसू भी सूखे तो क्या।
पत्ता-पत्ता डाली-डाली, 
बरगद भी सूखा तो क्या,
जड़े शेष जमीं में बाकी, 
गुलशन भी सूखा तो क्या,
स्याही सूखी, कलम भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या,
अपने रूठे, सपने झूठे, 
जग भी छूट गया तो क्या,
जन्मों का ये संग है अपना, 
छूट गया इक जिस्म तो क्या
स्याही सूखी, कलम भी टूटी, 
सपने भी टूटे तो क्या।

20 February, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

दुश्मनी का सफर, एक कदम - दो कदम,
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएँगे।

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA


अखबारों की सुर्ख़ियों में आने लगा जो नाम मेरा
वो बिना पढ़े ही कईं कईं पन्ने पलटाने लगे हैं.






10 February, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

"मुसीबतों में उभरती है
शख्सियत यारो,
जो पत्थरों से ना उलझे
वो आइना क्या है"..

13 January, 2014

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA







मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे


ANUGRAH MISHRA-

ANUGRAH MISHRA

05 January, 2014

AKSHAT- THE BEST CREATION OF GOD..

AKSHAT(MY BHANJA)--ANUGRAH MISHRA
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे


ANUGRAH MISHRA - NEW YEAR 2014

ANUGRAH MISHRA

"जायचा देख के बोला ये नज़ूमी मुझ से ,
जो भी माँगा है वो हर हाल में मिल जायेगा ,
क्या मुबारक है नया साल जो मैं खुश होऊं ?
वो जो बिछुड़ा है क्या इस साल में मिल जायेगा?"


courtesy.. kumar vishwas 

01 January, 2014

HAPPY NEW YEAR

ANUGRAH MISHRA
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा 

देकर नवल प्रभात विश्व को, हरो त्रस्त जगत का अंधियारा 

हर मन को दो तुम नई आशा, बोलें लोग प्रेम की भाषा 
समझें जीवन की सच्चाई, पाटें सब कटुता की खाई 

जन-जन में सद्भाव जगे, औ घर-घर में फैले उजियारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

मिटे युद्ध की रीति पुरानी, उभरे नीति न्याय की वाणी 
भय आतंक द्वेष की छाया का होवे संपूर्ण सफाया 

बहे हवा समृद्धि दायिनी, जग में सबसे भाईचारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

करे न कोई कहीं मनमानी दुख आंखों में भरे न पानी 
हर बस्ती सुख शांति भरी हो, मुरझाई आशा लता हरी हो 

भूल सके जग सब पी़ड़ाएं दुख दर्दों क्लेशों का मारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा 

वातावरण नया बन जाए, हर दिन नई सौगातें लाए 
सब उदास चेहरे मुस्काएं, नए विचार नए फूल खिलाएं 

ममता की शीतल छाया में जिए सुखद जीवन जग सारा।। 
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा

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