30 November, 2015

Anugrah Mishra

""गुम न हो जाय साझी विरासत कहीं,
अपने बच्चों को किस्से सुनाया करो |
भीग जाने का अपना अलग लुत्फ़ है,
बारिशों में निकलकर नहाया करो |
तुम जो रूठो तो कोई मनाये तुम्हें,
कोई रूठे तो तुम भी मनाया करो |""

#AnugrahMishra

23 October, 2015

AnugrahMishra

Anugrah Mishra

A #desi and #memorable #lunch at #ढाबा
with a sweet plate of #खीर made the day... 
Thanks #dhakad & #hemant bhai...
#AnugrahMishra

Anugrah Mishra







 नजर में शौकिया लब पर मोहब्बत का फ़साना है,
मेरी उम्मीद की जद में अभी सारा ज़माना है ,
कई जीते है दिल के देश पर मालूम है मुझको ;
सिकंदर हु मुझे एक रोज खाली हाथ जाना है!!!
#AnugrahMishra

15 April, 2015

ANUGRAH MISHRA–SHAYARI HINDI

जिस दिन मेरी मौत की खबर मिलेगी तब लोग यही कहेंगे
बन्दा कभी मिला तो नही था लेकिन पोस्ट अच्छी डालता था
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10 April, 2015

HINDI KAVITA–ANUGRAH MISHRA

 

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विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;
मुझे लुटा भर देना है, अपना अनिवार्य, असंयत गान।
ओ अबाध के सखा! नहीं मैं अपनाने का इच्छुक हूँ;
अभिलाषा कुछ नहीं मुझे, मैं देने वाला भिक्षुक हूँ!
परिचय, परिणय के बन्धन से भी घेरूँ मैं तुम को क्यों?
सृष्टि-मात्र के वाञ्छनीय सुख! मेरे भर हो जाओ क्यों?
प्रेमी-प्रिय का तो सम्बन्ध स्वयं है अपना विच्छेदी-
भरी हुई अंजलि मैं हूँ, तुम विश्व-देवता की वेदी!
अनिर्णीत! अज्ञात! तुम्हें मैं टेर रहा हूँ बारम्बार-
मेरे बद्ध हृदय में भरा हुआ है युगों-युगों का भार।
सीमा में मत बँधो, न तुम खोलो अनन्त का माया-द्वार-
मैं जिज्ञासु इसी का हूँ कि अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?
विश्व नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
~

अज्ञेय

05 April, 2015

मन्जिल :- एक तलाश

 

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

दोस्तो वक्त के साथ चलते-चलते, कभी खुद को तो कभी दुसरो को बदलते- बदलते, हम लोग इतना आगे निकल आये है की अब उस वक्त के साथ लय मिलाकर चलना भी कठिन हो गया है। इस दौडती भागती जिन्दगी ने शायद इतना जानने का मौका ही नही दिया, या यू कहे की हमने ये जानने का मौका चाहा भी नही की इस वक्त और जिन्दगी के तालमेल को बनाये रखने के लिये हम किस ओर भागे जा रहे है। खैर कहा जाता है की चलने और फिर कभी न रुकने का नाम ही तो जिन्दगी है, पर ध्यान बस इतना रहे की की ये जो दिन रात भागते रहने वाली जिन्दगी है, वो कही नकारात्मकता की ओर ना मुड जाये। ऐसा ना हो की मन्जिल मिल तो जाये पर ऐसी की जहा दो पल रुक भी ना सके और फिर मजबूर होकर एक नयी मन्जिल तलाशने मे लग जाये, जो आज की खासकर, हमारी युवा पीढी के समक्ष प्रमुख चुनौती है।

दोस्तो इन मन्जिलो कि तलाश तो यू उम्र भर चलती ही रहेगी, बस अपने आप मे इतनी सकारात्मकता बनाये रखियेगा कि ये सन्सार भर की उलझने और दुविधाये आपके रास्ते को ना बदल पाये। आप उसी मन्जिल तक पहुचे जहा आपको पहुचना है।

बेशक जो रास्ता हमने चुना है, वो थोडा औरो से कठिन लग भी सकता है और हो भी सकता है पर यकीन मानिये सन्सार का हर एक व्यक्ति शायद यही सोचता है, इसलिये आपके लिये बस इतना सा सन्देश है की खुद मे इतनी शक्ति हो की अपने आप को उस स्तर तक ले जा सके, जहा तक पहुच के आपको खुद पर गर्व महसूस हो सके।

अन्ततः बस इतना सा सन्देश देना चाहता हू की-

“है अगर विश्वास तो मन्जिल मिलेगी,

शर्त इतना है की बिना रुके चलना होगा,

जिस जगह हो अमावस की हूकूमत,

वहा दिया सा जलना होगा॥“

- अनुग्रह मिश्रा