17 November, 2012

ANUGRAH MISHRA

क्या कहा? - 'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है,
यह सृष्‍टि चराचर केवल छाया है, भ्रम है?
है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीवन?
यह नाम, रूप-सौंदर्य अविद्या है, तम है?

मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती क
जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती है,
मैं कैसे कह दूँ मिथ्‍या है संपूर्ण सृष्टि
हर एक कली जब मुझे देख शरमाती है?

जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझू
जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता है,
कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफ
जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है

वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जान
मुझको भी इस मिट्‍टी का कण-कण प्यारा है,
है प्यार मुझे जग से, जीवन के क्षण-क्षण स
तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!

मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों मे
सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता है,
बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुब
कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!

निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फस
जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती है,
तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता ह
औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!

तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसं
तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल परा
तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का
'अक्षर' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहा

बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में
जब मेरे मन का सूनापन खो जाता है,
संगीत दिखाई देता है साकार मुझ
तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है

जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ
थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्टि
तब वायु कान में चुपसे कह जाती है,
'रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्टि'

कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदिया
है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पायल,
फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहे
तब लगता सच एकाँत नहीं, सच है हलचल

अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊप
जब करता है पपीहा अपने 'पी' का प्रका
तब सच मानो मालूम यही होता मुझक
गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !

जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुब
निज गायन से करते मुखरित उपवन-कान
सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझक
तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण

पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आक
जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगा
तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तर
प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार

जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले
प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम ना
तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई-
देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम

अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई
जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्ष
तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपा
सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्व

मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ प
भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजार,
तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वय
है खोज रहा धरती पर मिट्‍टी की मजार

यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है-
वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जाना?
जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन मे
जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना

भाई! यह दर्शन संत महंतों का है ब
तुम दुनिया वाले हो, दुनिया से प्यार करो,
जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा ह
उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !

यह बात कही जिसने उसको मालूम न थ
वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्व
होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव क
औ' ज्ञान ब्रह्म को नहीं, मनुज को देगा स्वर।

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