18 November, 2012

ANUGRAH MISHRA

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ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

ANUGRAH MISHRA

17 November, 2012

ANUGRAH MISHRA

(1)
मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बया
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्या

(2)
भारत माँ के नयन दो हिन्दू-मुस्लिम जा
नहीं एक के बिना हो दूजे की पहचा

(3)
बिना दबाए रस न दे ज्यों नींबू और आ
दबे बिना पूरे न हों त्यों सरकारी का

(4)
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवे
उनको भाता है नहीं अपना भारत दे

(5)
जब तक कुर्सी जमें खालू और दु:खरा
तब तक भ्रष्टाचार को कैसे मिले विरा

(6)
पहले चारा चर गए अब खाऍँगे दे
कुर्सी पर डाकू जमें धर नेता का भे

(7)
कवियों की और चोर की गति है एक समा
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मका

(8)
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवा
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पा

(9)
जब हो चारों ही तरफ घोर घना अँधिया
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्का

(10)
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कू
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फू

(11)
भूखा पेट न जानता क्या है धर्म-अधर्
बेच देय संतान तक, भूख न जाने शर्

(12)
दोहा वर है और है कविता वधू कुली
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवी

(13)
गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्

(14)
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आ
मृत्यु नहीं जाए कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जा

(15)
टी.वी. ने हम पर किया यूँ छुप-छुप कर वा
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवा

(16)
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचा
तब से घर आते नहीं चिट्ठी, पत्री, ता

(17)
आँखों का पानी मरा हम सबका यूँ आ
सूख गए जल स्रोत सब इतनी आई ला

(18)
करें मिलावट फिर न क्यों व्यापारी व्यापा
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरका

(19)
रुके नहीं कोई यहाँ नामी हो कि अना
कोई जाए सुबह को कोई जाए शा

(20)
ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवा
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पा

(21)
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षड़यंत्
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्

(22)
राजनीति के खेल ये समझ सका है कौ
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फो

(23)
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पा
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवा

(24)
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से ना
उसने आँखों के बिना देख लिए घनश्या

(25)
चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आका
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवा

(26)
सेक्युलर होने का उन्हें जब से चढ़ा जुनू
पानी लगता है उन्हें हर हिन्दू का खू

(27)
हिन्दी, हिन्दू, हिन्द ही है इसकी पहचा
इसीलिए इस देश को कहते हिन्दुस्ता

(28)
रहा चिकित्साशास्त्र जो जनसेवा का कर्
आज डॉक्टरों ने उसे बना दिया बेशर्

(29)
दूध पिलाए हाथ जो डसे उसे भी साँ
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आ

(30)
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धू
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फू

(31)
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसा
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समा

(32)
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्

(33)
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चा
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजा

(34)
सेज है सूनी सजन बिन, फूलों के बिन बाग
घर सूना बच्चों बिना, सेंदुर बिना सुहा

(35)
यदि यूँ ही हावी रहा इक समुदाय विशे
निश्चित होगा एक दिन खण्ड-खण्ड ये दे

(36)
बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसा
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समा

(37)
चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आय
इससे ज्यादा तेज़ तो चले न कोई वाय


(38)
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आ
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रका


(39)
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना या
इस शराब ने हैं किए, कितने घर बर्बा


(40)
जब कम हो घर में जगह हो कम ही सामा
उचित नहीं है जोड़ना तब ज्यादा मेहमा

(41)
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमा
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे या

(42)
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्

(43)
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लू
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छू

(44)
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवा
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वा

(45)
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जा
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमा

(46)
किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमा
सच कहकर जो झूठ को देता गले उता

(47)
जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँ
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँ

(48)
अपना देश महान है, इसका क्या है अर्
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्

(49)
दीपक तो जलता यहाँ सिर्फ एक ही बा
दिल लेकिन वो चीज़ है जले हज़ारों बा


(50)
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवा
और इसी से है मुझे करना सागर पा

ANUGRAH MISHRA

क्या कहा? - 'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है,
यह सृष्‍टि चराचर केवल छाया है, भ्रम है?
है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीवन?
यह नाम, रूप-सौंदर्य अविद्या है, तम है?

मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती क
जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती है,
मैं कैसे कह दूँ मिथ्‍या है संपूर्ण सृष्टि
हर एक कली जब मुझे देख शरमाती है?

जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझू
जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता है,
कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफ
जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है

वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जान
मुझको भी इस मिट्‍टी का कण-कण प्यारा है,
है प्यार मुझे जग से, जीवन के क्षण-क्षण स
तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!

मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों मे
सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता है,
बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुब
कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!

निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फस
जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती है,
तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता ह
औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!

तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसं
तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल परा
तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का
'अक्षर' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहा

बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में
जब मेरे मन का सूनापन खो जाता है,
संगीत दिखाई देता है साकार मुझ
तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है

जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ
थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्टि
तब वायु कान में चुपसे कह जाती है,
'रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्टि'

कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदिया
है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पायल,
फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहे
तब लगता सच एकाँत नहीं, सच है हलचल

अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊप
जब करता है पपीहा अपने 'पी' का प्रका
तब सच मानो मालूम यही होता मुझक
गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !

जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुब
निज गायन से करते मुखरित उपवन-कान
सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझक
तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण

पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आक
जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगा
तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तर
प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार

जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले
प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम ना
तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई-
देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम

अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई
जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्ष
तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपा
सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्व

मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ प
भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजार,
तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वय
है खोज रहा धरती पर मिट्‍टी की मजार

यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है-
वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जाना?
जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन मे
जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना

भाई! यह दर्शन संत महंतों का है ब
तुम दुनिया वाले हो, दुनिया से प्यार करो,
जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा ह
उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !

यह बात कही जिसने उसको मालूम न थ
वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्व
होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव क
औ' ज्ञान ब्रह्म को नहीं, मनुज को देगा स्वर।

ANUGRAH MISHRA

mai pal do pal ka shayar hu
pal do pal meri kahani hai
pal do pal meri hasti hai
pal do pal meri jawani hai
mai pal do pal ka shayar hu
pal do pal meri kahani hai
pal do pal meri hasti hai
pal do pal meri jawani hai
mai pal do pal ka shayar hu
mujhse pahale kitne shayar
aaye aur aakar chale gaye
kuch aahe bhar kar lot gaye
kuch nagame gakar chale gaye
wo bhi ek pal ka kisa the
mai bhi ek pal ka kisa hu
kal tumse juda ho jaunga
wo aaj tumhara hisa hu
mai pal do pal ka shayar hu
pal do pal meri kahani hai
pal do pal meri hasti hai
pal do pal meri jawani hai
mai pal do pal ka shayar hu
kal aur aayege nagamo ki
khilati kaliya chunne wale
mujhse behatar kahne wale
tumse behatar sunne wale
kal koi mujhko yaad kare
kyu koi mujhko yaad kare
masaruf zamana mere liye
kyu waqt apna barabad kare
mai pal do pal ka shayar hu
pal do pal meri kahani hai
pal do pal meri hasti hai
pal do pal meri jawani hai
mai pal do pal ka shayar hu
pal do pal meri kahani hai
pal do pal meri hasti hai
pal do pal meri jawani hai
mai pal do pal ka shayar hu

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